आज यू लगा कि जैसे सर के बल खड़े होकर दुनिया देख रही हू...इतने दिनों से जो तेज़ धूप ने कमरे की खिड़कियाँ बंद करने को मजबूर कर रखा था आज उसी धूप ने मानो दुनिया देखने का नजरिया बदलने की ठान रखी हो...सूखी ज़मीं पर बूंदे पहले भी गिरी है, मगर आज बूंदे गिरते ही ज़मीं नहीं मुस्कुरायी...पहले एक, फिर दो, फिर कई सारी बूंदों ने मिलकर ज़मीं को मनाने कि बहुत कोशिश की..पर ज़मीन थी की मुस्कुराई तक नहीं...शायद इस बार तेज़ धूप ने जो तबाही मचाई थी, उन चंद बूंदों की मनुहार से धरती कहाँ मानने वाली थी....धूप भी क्या करती, उपर से आये हुक्म की तामील जो करनी थी...
वो खुशबू आज भी मन में समाई है, जो पहली बारीश की बूंदे मेरे कमरे की खिड़की पर दस्तक देकर बिखेर जाती थी....फिर मानो इशारे से छत पर बुलाया करती ...माँ की रसोई के लिए बिखरे पापड़ जो छत पर सूखा करते थे, वो तक जलने के बजाय, भीगना ज्यादा पसंद करते ...इसीलिए मैं उन्हें समेटती नहीं... युही रखे रहने देती...माँ जल्दी-जल्दी सीढियां चढ़ती, चिल्लाते हुए की "अरे पापड़ समेटे या नहीं?? कपडे फिर गीले हो जाएँगे...सब समेट कर नीचे ले आ"...नीचे तोः मैं ले आती सब समेट कर, मगर उस समेटे हुए सामान में, पहली बारिश की ख़ुशी और माँ की प्यारी सी डांट को न मानने की शरारत छुपी होती थी...
आज माँ से फ़ोन पर बात करुँगी, कहूँगी की माँ मैं जल्दी तुझसे मिलने आउंगी, तोः शायद प्यासी धरती मान जाये और फिर उसी खुश्बू के साथ सबको महका दे....